आधुनिक >> साईबर मां साईबर मांमधु धवन
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आज के साइबर युग में युवाओं की आकांक्षाओं को मनोवैज्ञानिक धरातल पर सार्थक आकार देने वाला एक रोचक उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
किशोरावस्था हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है, जहां सब कुछ बदला हुआ,
नये रोमांच से भरा होता है।
आज के साइबर युग में किशोर छुटपन से ही टी.वी. के रिमोट और कंप्यूटर के माउस के साथ खेलना पसंद करते हैं।
नये सुख की ललक में यह युवा वर्ग पढ़ने या अपने भविष्य निर्माण करने की अपेक्षा चैट की लत में पड़ कर सेक्स रिलेशनशिप में डूब जाते हैं। विचारणीय बात तो यह है कि गुमराह होने वाले ये छात्र-छात्रायें वे हैं जो मेधावी होते हैं। पर इनको सही दिशा में मार्ग-निर्देशन कराने वाला कोई नहीं होता।
यूं तो मां की भूमिका बच्चों के लालन-पालन में सदा से ही महत्त्वपूर्ण रही है। डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, योद्धा, प्रशासक बनने के पीछे हमेशा से ही मां का ही हाथ रहा है। किंतु आज के साइबर युग में मां की भूमिका और अधिक बढ़ गयी है। इंटरनेट प्रचालन सीखना एक मां के लिए ज़रूरी हो गया है। तभी वह अपने बच्चों का मार्ग-निर्देशन कर सकती है।
आज के साइबर युग में किशोर छुटपन से ही टी.वी. के रिमोट और कंप्यूटर के माउस के साथ खेलना पसंद करते हैं।
नये सुख की ललक में यह युवा वर्ग पढ़ने या अपने भविष्य निर्माण करने की अपेक्षा चैट की लत में पड़ कर सेक्स रिलेशनशिप में डूब जाते हैं। विचारणीय बात तो यह है कि गुमराह होने वाले ये छात्र-छात्रायें वे हैं जो मेधावी होते हैं। पर इनको सही दिशा में मार्ग-निर्देशन कराने वाला कोई नहीं होता।
यूं तो मां की भूमिका बच्चों के लालन-पालन में सदा से ही महत्त्वपूर्ण रही है। डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, योद्धा, प्रशासक बनने के पीछे हमेशा से ही मां का ही हाथ रहा है। किंतु आज के साइबर युग में मां की भूमिका और अधिक बढ़ गयी है। इंटरनेट प्रचालन सीखना एक मां के लिए ज़रूरी हो गया है। तभी वह अपने बच्चों का मार्ग-निर्देशन कर सकती है।
साइबर मां
लीक से हट कर बिल्कुल नयी पृष्ठभूमि और मनोवैज्ञानिक धरातल पर लिखी गयी यह
कृति मधु धवन का हिंदी में पहला प्रयास है।
मेरी अपनी बात
आज हम 21वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुके हैं। विज्ञान की प्रगति ने हमारी
जीवन शैली में बहुत बड़ा परिवर्तन ला दिया है। आज इन्टरनेट, ई.मेल,
एस.एम.एस. का युग है। सूचना परक युग ने हमारे चिंतन मनन को अत्यधिक
प्रभावित क्या है। आज हम सब उठते-बैठते, चलते-फिरते अपने समस्त कार्यों को
करते हैं।
बचपन व किशोरावस्था हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है जहां सब कुछ बदलता हुआ नये रोमांच से भरा होता है। नये सुख की ललक में किशोर गुमराह होते नज़र आते हैं। वे पढ़ने और भविष्य निर्माण करने की अपेक्षा इंटरनेट का दुरुपयोग करने लगते हैं।
निःसंदेह इंटरनेट सशक्त वरदान स्वरूप है जहां हर व्यक्ति को जब चाहे विषयगत सूचनाएं मिल सकती हैं। इंटरनेट ज्ञान का भंडार है। कंप्यूटर के कुंजीपटल को ज्ञान के भंडार की कुंजी कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। किंतु इसका सही उपयोग न करने पर किशोर मन गुमराह हो जाता है। उसे चैट करने की लत पड़ जाती है और वह सैक्स रिलेशनशिप आदि में डूब जाता है। विचारणीय बात यह है कि इस तरह गुमराह होने वाले वे छात्र होते हैं जो मेधावी होते हैं। उनके किशोर मन में उठने वाले कौतूहल को सही मार्ग दिखाने वाला कोई नहीं होता।
हर युग में मां की भूमिका सदा महत्त्वपूर्ण रही है। धरती पर जितने वीर योद्धा, शासक, प्रशासक हुए हैं उनके निर्माण में मां की भूमिका रही है। इसी तरह आज भी मां की भूमिका उसी भांति महत्त्वपूर्ण है। आज का युग साइबर युग है। इस युग की मांग है कि समस्त माताएं शिक्षित हों। आज उन्हें आंखें खोल कर अपना कार्य पूरा करना है, क्योंकि उनकी भूमिका विस्तृत एवं चुनौतीपूर्ण हो गयी है। आज मां को इंटरनेट प्रचालन सीखना है, क्योंकि आज का बच्चा छुटपन से ही टी.वी के रिमोट और कंप्यूटर के माउस के साथ खेलने पसंद करता है। मां को बच्चे की बढ़ती उम्र के साथ मार्गदर्शन करते चले जाना है। यह कह कर वह पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उसे तो यह कार्य आता नहीं, उसके बच्चे खुद कर लेंगे। ऐसी माताओं के 98 प्रतिशत बच्चे चैट के माध्यम से मां की आंखों में धूल झोंक कर लड़कियों से बातचीत में समय बर्बाद करते हैं और जब बिल आता है तो पता चलता है कि बच्चा पढ़ाई नहीं कर रहा था, बल्कि चैट लिस्ट से नाम चुन-चुन कर अनर्गल बातों में डूबा हुआ था।
साइबर युग की मां को चाहिए कि वह अपने बढ़ते बच्चों की दोस्त बन जाये। उनकी हर भावना को समझे। उसी के अनुरूप क़दम उठाये। जो माताएं सतर्क, सहज, सरल और बुद्धिमती होती हैं उनकी संताने सदा सफल जीवन का आनंद लेती हैं। मां का स्वभाव चाकलेट की तरह होना चाहिए—मुंह में हौले हौले घुलना और मिठास बन कर मन पर छा जाना। बच्चों का जीवन अमूल्य धरोहर होता है। इसलिए हर युग में माता-पिता की यही कामना होती है कि उनके बच्चों का जीवन सफल एवं सुखद बना रहे।
इस उपन्यास को लिखना मेरे लिए इसलिए अनिवार्य हो गया कि मेरे चारों ओर का परिवेश विभिन्न हादसों और घटनाओं से आक्रांत था। एक तो मैं स्वयं प्राध्यापिक हूँ। मेरा उठना-बैठना छात्र–छात्राओं के साथ है। दूसरा कारण, मैं तीन महिला छात्रावास तथा दो क्रैंच कमेटी की अध्यक्षा हूं। एक छात्रावास में नौवीं से प्लस टू की छात्राएं रहती हैं, दूसरे छात्रावास में कालेज की छात्राएं और तीसरे छात्रावास में कामकाजी महिलाएं रहती हैं इनके भावों-विचारों के साथ मेरा प्रतिदिन साक्षात्कार होता है। प्रत्येक छात्रा को बुला कर मैं विचारों का आदान-प्रदान करती हूँ। अपने चारों ओर के वातावरण में मेधावी छात्र-छात्राओं को भी जीवन का संतुलन खोते हुए देख रही हूं। छात्रावास हो या कॉलेज, समस्त छात्र-छात्राओं के साथ में सेल है। वह वार्डन हो या शिक्षक, किसी की ओर देखे बिना ही वे अपने में मस्त हैं। ऐसी भी कई स्थितियां हैं जहां माता-पिता अपने बच्चे की ओर ध्यान ही नहीं देते। वे कई तरह से रोगी हो जाते हैं। इन तमाम तलस्पर्शी ने मुझे यह उपन्यास लिखने को प्रेरित किया।
मेरा यह अनुभव है कि अकेला व्यक्ति कभी कुछ नहीं कर सकता। जब तक कि अच्छी टीम न हो, कोई काम सफल नहीं होता। मैं श्रद्धेय डॉ. राज भारद्वाज जी का हृदय से आभार व्यक्त करती हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष प्रेरणा का काम किया।
डॉ. कमला विश्वनाथ के प्रति आभार व्यक्त करती हूं जिन्होंने कई बहुमूल्य सुझाव दे कर कृति को ऊर्जा प्रदान की।
मैं आभार व्यक्त करती हूं अपने समस्त मित्र-हितैषियों, सहयोगियों और अपने छात्र-छात्राओं का जिनसे मुझे किशोर मन को समझने और उनकी सुखद-दुखद अनुभूतियों को निकटता से अनुभव करने का दैव-दुर्लभ अवसर मिला।
बचपन व किशोरावस्था हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है जहां सब कुछ बदलता हुआ नये रोमांच से भरा होता है। नये सुख की ललक में किशोर गुमराह होते नज़र आते हैं। वे पढ़ने और भविष्य निर्माण करने की अपेक्षा इंटरनेट का दुरुपयोग करने लगते हैं।
निःसंदेह इंटरनेट सशक्त वरदान स्वरूप है जहां हर व्यक्ति को जब चाहे विषयगत सूचनाएं मिल सकती हैं। इंटरनेट ज्ञान का भंडार है। कंप्यूटर के कुंजीपटल को ज्ञान के भंडार की कुंजी कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। किंतु इसका सही उपयोग न करने पर किशोर मन गुमराह हो जाता है। उसे चैट करने की लत पड़ जाती है और वह सैक्स रिलेशनशिप आदि में डूब जाता है। विचारणीय बात यह है कि इस तरह गुमराह होने वाले वे छात्र होते हैं जो मेधावी होते हैं। उनके किशोर मन में उठने वाले कौतूहल को सही मार्ग दिखाने वाला कोई नहीं होता।
हर युग में मां की भूमिका सदा महत्त्वपूर्ण रही है। धरती पर जितने वीर योद्धा, शासक, प्रशासक हुए हैं उनके निर्माण में मां की भूमिका रही है। इसी तरह आज भी मां की भूमिका उसी भांति महत्त्वपूर्ण है। आज का युग साइबर युग है। इस युग की मांग है कि समस्त माताएं शिक्षित हों। आज उन्हें आंखें खोल कर अपना कार्य पूरा करना है, क्योंकि उनकी भूमिका विस्तृत एवं चुनौतीपूर्ण हो गयी है। आज मां को इंटरनेट प्रचालन सीखना है, क्योंकि आज का बच्चा छुटपन से ही टी.वी के रिमोट और कंप्यूटर के माउस के साथ खेलने पसंद करता है। मां को बच्चे की बढ़ती उम्र के साथ मार्गदर्शन करते चले जाना है। यह कह कर वह पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उसे तो यह कार्य आता नहीं, उसके बच्चे खुद कर लेंगे। ऐसी माताओं के 98 प्रतिशत बच्चे चैट के माध्यम से मां की आंखों में धूल झोंक कर लड़कियों से बातचीत में समय बर्बाद करते हैं और जब बिल आता है तो पता चलता है कि बच्चा पढ़ाई नहीं कर रहा था, बल्कि चैट लिस्ट से नाम चुन-चुन कर अनर्गल बातों में डूबा हुआ था।
साइबर युग की मां को चाहिए कि वह अपने बढ़ते बच्चों की दोस्त बन जाये। उनकी हर भावना को समझे। उसी के अनुरूप क़दम उठाये। जो माताएं सतर्क, सहज, सरल और बुद्धिमती होती हैं उनकी संताने सदा सफल जीवन का आनंद लेती हैं। मां का स्वभाव चाकलेट की तरह होना चाहिए—मुंह में हौले हौले घुलना और मिठास बन कर मन पर छा जाना। बच्चों का जीवन अमूल्य धरोहर होता है। इसलिए हर युग में माता-पिता की यही कामना होती है कि उनके बच्चों का जीवन सफल एवं सुखद बना रहे।
इस उपन्यास को लिखना मेरे लिए इसलिए अनिवार्य हो गया कि मेरे चारों ओर का परिवेश विभिन्न हादसों और घटनाओं से आक्रांत था। एक तो मैं स्वयं प्राध्यापिक हूँ। मेरा उठना-बैठना छात्र–छात्राओं के साथ है। दूसरा कारण, मैं तीन महिला छात्रावास तथा दो क्रैंच कमेटी की अध्यक्षा हूं। एक छात्रावास में नौवीं से प्लस टू की छात्राएं रहती हैं, दूसरे छात्रावास में कालेज की छात्राएं और तीसरे छात्रावास में कामकाजी महिलाएं रहती हैं इनके भावों-विचारों के साथ मेरा प्रतिदिन साक्षात्कार होता है। प्रत्येक छात्रा को बुला कर मैं विचारों का आदान-प्रदान करती हूँ। अपने चारों ओर के वातावरण में मेधावी छात्र-छात्राओं को भी जीवन का संतुलन खोते हुए देख रही हूं। छात्रावास हो या कॉलेज, समस्त छात्र-छात्राओं के साथ में सेल है। वह वार्डन हो या शिक्षक, किसी की ओर देखे बिना ही वे अपने में मस्त हैं। ऐसी भी कई स्थितियां हैं जहां माता-पिता अपने बच्चे की ओर ध्यान ही नहीं देते। वे कई तरह से रोगी हो जाते हैं। इन तमाम तलस्पर्शी ने मुझे यह उपन्यास लिखने को प्रेरित किया।
मेरा यह अनुभव है कि अकेला व्यक्ति कभी कुछ नहीं कर सकता। जब तक कि अच्छी टीम न हो, कोई काम सफल नहीं होता। मैं श्रद्धेय डॉ. राज भारद्वाज जी का हृदय से आभार व्यक्त करती हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष प्रेरणा का काम किया।
डॉ. कमला विश्वनाथ के प्रति आभार व्यक्त करती हूं जिन्होंने कई बहुमूल्य सुझाव दे कर कृति को ऊर्जा प्रदान की।
मैं आभार व्यक्त करती हूं अपने समस्त मित्र-हितैषियों, सहयोगियों और अपने छात्र-छात्राओं का जिनसे मुझे किशोर मन को समझने और उनकी सुखद-दुखद अनुभूतियों को निकटता से अनुभव करने का दैव-दुर्लभ अवसर मिला।
-मधु धवन
साईबर मां
‘‘विशाल...ओ माइ डियर, नॉटी सन...बेटे...ओ प्यारे
बेटे विशाल !’’
‘‘क्या मां...?’’
‘‘कहां हो ?’’
‘‘मैं यहां हूं....’’
‘‘यहां हूं...यहां कहां....? कल से दिखायी नहीं दे रहे हो। क्या कर रहे हो...?’’
‘‘अभी मैं पापा के स्टडीरूम में इंटरनेट पर हूं...’’ विशाल ने जवाब दिया।
‘इंटरनेट ? क्या पापा से चैट कर रहे हो ?’’ महक ने पूछा।
‘‘नहीं...मां ....’’
महक ने बिना किसी विशेष उत्तर की प्रतीक्षा के कहा, ‘‘मेरा मेल भी चेक कर लो...और हां, आज सारी यूनिवर्सिटियों के प्रोसपेक्ट्स तथा कैंपस भी देख लो, किस यूनिवर्सिटी में कौन-कौन सी सुविधाएं हैं जिससे तुम्हारे एडमिशन के बारे में उसी के अनुरूप विचार किया जाये। ऑन लाइन पर बिजली का बिल भर दो। फूट वर्ल्ड को राशन की लिस्ट भेज दो, सूचना दे देना कि शाम को सात बजे के बाद आये...ओह बाथरूम में पानी का पाइप लीक कर रहा है....’’
मां की बात बीच में ही काटते हुए विशाल ने कहा, ‘‘मां, मुझे एक ज़रूरी प्रोजेक्ट का काम पूरा करना है। अभी कॉलेज थोड़े ही जा रहा हूं। अभी स्कूल में ही हूं।’’
‘‘कौन से प्रोजेक्ट पर...? तुम्हारी परीक्षा तो कब की खत्म हो चुकी है !’’
‘‘मेरा अपना काम नहीं है...’’
‘‘तो फिर किसका है ?’’
‘‘मेरा दोस्त गौरव है न, उसकी बहन ऋचा की सहेली का है।’’
‘‘गौरव का हो या उसकी बहन का या उसकी सहेली का, पर तू क्यों कर रहा है ?’’ मां ने मधुर स्वर में पूछा।
‘‘उसके पास कंप्यूटर नहीं है।’’
‘‘तो...?’’
‘‘और न ही उसे विषय की अच्छी जानकारी है। इंटरनेट पर इतनी जानकारी उपलब्ध है कि जो चाहे उससे लाभ उठा सकता है। सारे विश्व का यह ज्ञान भंडार है और उसकी चाबी हमारे पास है....’’ इतना कहकर वह अपना काम करने लगा।
‘‘तो तुम जिसका प्रोजेक्ट है उसको साथ बिठाकर काम कराओ। प्रोजेक्ट का काम यदि तुम पूरा कर दोगे तो उसे कैसे कुछ समझ में आयेगा ? स्कूल-कॉलेजों में जो प्रोजेक्ट दिये जातें हैं वे कोई दिखावा या खानापूर्ति थोड़े ही होते हैं। उससे हर छात्र के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है।’’ महक कुछ देर चुप रही फिर गंभीर स्वर में बोली, ‘‘प्रोजेक्ट के प्रश्न को समझना, विषय के अनुरूप सामग्री ढूँढ़ कर एकत्र करना, विषय की प्रस्तुत-कला पर ध्यान देना, आदि बातों के साथ कितनी ही नयी बातों की जानकारी प्राप्त होती है।
‘‘आपकी बात सही है मां, किंतु वह यहां आ कर साथ बैठ कर काम करेगी ?’’
‘‘क्यों नहीं करेगी ? काम उसका है। सीखना उसको है। अच्छे अंक उसको पाने हैं। पास उसे होना है तो उसे बैठना चाहिए,’’ महक ने बेटे को समझाते हुए कहा।
‘‘मां, अब मैंने उसे कह दिया है कि मैं काम पूरा कर के दूंगा। अब यह तो मुझे ही करना चाहिए। भविष्य में इसका ध्यान रखूंगा।’’
‘‘जो अपना काम स्वयं न कर दूसरों पर थोप दे, यह ठीक नहीं। वह सबके सामने तुम्हारी प्रशंसा के बोल बोलती रहेगी किंतु अपना काम स्वयं न कर कहीं बैठे गप्पें मार रही होगी या पिक्चर देख रही होगी या फिर यूं ही कहीं बाज़ार में घूम रही होगी लेकिन पढ़ नहीं रही होगी ऐसी लड़की इसीलिए तो प्रोजेक्ट करने में असमर्थ होती है...और सहेली के भाई का दोस्त अपने सारे काम छोड़ कर उसका काम करे तो और क्या चाहिए उसे ?’’
महक थोड़ी देर चुप रही फिर कहने लगी, ‘‘तुमने कभी यह सोचा है कि भलाई के नाम पर तुम उसका कितना बड़ा नुकसान कर रहे हो ?’’
‘‘आप ही बताएं, स्कूल वालों को इतने भारी प्रोजेक्ट देने की क्या ज़रूरत है वह साधारण प्रोजेक्ट नहीं दे सकते क्या ?’’
‘‘विशाल, स्कूल हो या फिर कॉलेज, प्रोजेक्ट सोच-समझ कर ही दिये जाते हैं। छात्र की उम्र, कक्षा का स्तर, छात्र का स्तर, छात्र के अंदरूनी गुणों के देखते हुए विषय का चयन किया जाता है’’, महक ने समझाते हुए कहा।
‘‘मैं नहीं मानता। यदि हमारे शिक्षक अपने छात्रों से ऊंची अपेक्षाएं रखते हैं तो उन्हें स्कूल में हमें पूरी तरह बताना चाहिए कि हम किस प्रकार प्रोजेक्ट पर काम करें। जो छात्र उनकी कोचिंग क्लासों में जाते हैं उन्हें वे अच्छी तरह समझाते हैं, पर स्कूल की क्लास में कुछ नहीं।’’ विशाल चिढ़ गया था। ‘आप नहीं जानतीं, हम सबको कितनी कठिनाई होती है। अकसर मां-बाप को ही उनका प्रोजेक्ट करना पड़ता है।’’ उसकी आवाज़ में बैखलाहट भर गयी। ‘‘क्या करते हैं शिक्षक ? छात्र नंबर नहीं लाते तो वे शिकायत करते हैं कि हम पढ़ते नहीं। जब छात्र शत-प्रतिशत अंक प्राप्त करता है तो वे क्या कहते हैं कि छात्र ने स्वयं मेहनत कर अंक प्राप्त किये हैं ? मैं कहता हूं मां, शिक्षक शिकायत तो करते हैं लेकिन कभी उन्होंने बच्चे की समस्या को समझा है ? उनकी मदद का कोई क़दम उठाया है ? वे केवल होशियार छात्रों को ही महत्त्व देते हैं,’’ उसने तीखे स्वर में कहा।
‘‘कक्षा में सबको आगे बढ़ाने का यह भी एक तरीक़ा होता है जिससे सब एक-दूसरे को देख कर अपना विकास कर सकें। कोई भी इंसान तब तक किसी वस्तु के लिए परिश्रम नहीं करता, तब तक वह वस्तु उसे प्राप्त नहीं हो सकती है’’, महक ने विशाल को समझाया।
‘‘आप चाहे शिक्षकों के कार्यों की सराहना करें लेकिन हम छात्रों को मालूम है कि हमें क्या-क्या झोलना पड़ता है। हम छात्र हैं, स्कूल में पढ़ने आये हैं, विषय के प्रति हमें कोई जानकारी नहीं होती तो छात्रों में विषय के प्रति जिज्ञासा जाग्रत करना क्या शिक्षकों का काम नहीं ?’’
थोड़ी देर में महक हाथ का काम निपटा उसके कमरे में यानी स्टडीरूम में आ गयी। मां के सामने आते ही विशाल गहन चिंतित नज़रों से उसकी ओर देखने लगा। फिर एक गहरी सांस लेते हुए बोला, ‘‘आप ही बताइए, जब हम फेल होते हैं तो शिक्षक और माता-पिता हमें ही दोषी क्यों ठहराते हैं। कभी उन्होंने यह भी सोचा है कि हमें ढंग से पढ़ाया गया है या नहीं ? हमारे संदेह दूर करने के लिए क्या कभी भिन्न-भिन्न प्रकार की पद्धतियां अपनायी गयीं हैं या नहीं ? यही इस छात्रा के साथ हुआ है।’ इतना कह कर विशाल अपने काम में पुनः जुट गया।
‘‘विशाल बेटे, इस प्रकार उसका विकास कभी नहीं हो पायेगा। उसे तुम सिखाओ, सब मिल कर एक-दूसरो को सिखाओ, लेकिन काम कर के देना तो उसके विकास को पूरी तरह से बंद करना होगा।’’
‘‘यह प्रोजेक्ट वह कितनी बार कर चुकी है लेकिन हर बार शिक्षक ने उस पर ‘पुनः करो’ लिख कर लौटा दिया है। इसलिए अब वह आत्मविश्वास खोने के साथ-साथ पूरी तरह टूट चुकी है।’’
‘‘विशाल बेटा, ज़िन्दगी हिम्मत का सौदा है।’’ मां का वाक्य कान में पड़ते ही उसके काम करते हाथ रुक गये। उसने मां की ओर ध्यान से देखा। महक ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘बार बार प्रयत्न करने पर भी जब हम असफल हो जाते हैं, हमारा निराशा से भरा दिल टूट जाता है तब भी हमें स्वयं ही अपने को उठाने का प्रयास करना पड़ता है। ज़रा सोचो, चोट लगने पर डॉक्टर दवा तो दे सकता है, इंजेक्शन लगा सकता है किंतु दर्द तो हमें ही सहना पड़ता है।
‘‘क्या मां...?’’
‘‘कहां हो ?’’
‘‘मैं यहां हूं....’’
‘‘यहां हूं...यहां कहां....? कल से दिखायी नहीं दे रहे हो। क्या कर रहे हो...?’’
‘‘अभी मैं पापा के स्टडीरूम में इंटरनेट पर हूं...’’ विशाल ने जवाब दिया।
‘इंटरनेट ? क्या पापा से चैट कर रहे हो ?’’ महक ने पूछा।
‘‘नहीं...मां ....’’
महक ने बिना किसी विशेष उत्तर की प्रतीक्षा के कहा, ‘‘मेरा मेल भी चेक कर लो...और हां, आज सारी यूनिवर्सिटियों के प्रोसपेक्ट्स तथा कैंपस भी देख लो, किस यूनिवर्सिटी में कौन-कौन सी सुविधाएं हैं जिससे तुम्हारे एडमिशन के बारे में उसी के अनुरूप विचार किया जाये। ऑन लाइन पर बिजली का बिल भर दो। फूट वर्ल्ड को राशन की लिस्ट भेज दो, सूचना दे देना कि शाम को सात बजे के बाद आये...ओह बाथरूम में पानी का पाइप लीक कर रहा है....’’
मां की बात बीच में ही काटते हुए विशाल ने कहा, ‘‘मां, मुझे एक ज़रूरी प्रोजेक्ट का काम पूरा करना है। अभी कॉलेज थोड़े ही जा रहा हूं। अभी स्कूल में ही हूं।’’
‘‘कौन से प्रोजेक्ट पर...? तुम्हारी परीक्षा तो कब की खत्म हो चुकी है !’’
‘‘मेरा अपना काम नहीं है...’’
‘‘तो फिर किसका है ?’’
‘‘मेरा दोस्त गौरव है न, उसकी बहन ऋचा की सहेली का है।’’
‘‘गौरव का हो या उसकी बहन का या उसकी सहेली का, पर तू क्यों कर रहा है ?’’ मां ने मधुर स्वर में पूछा।
‘‘उसके पास कंप्यूटर नहीं है।’’
‘‘तो...?’’
‘‘और न ही उसे विषय की अच्छी जानकारी है। इंटरनेट पर इतनी जानकारी उपलब्ध है कि जो चाहे उससे लाभ उठा सकता है। सारे विश्व का यह ज्ञान भंडार है और उसकी चाबी हमारे पास है....’’ इतना कहकर वह अपना काम करने लगा।
‘‘तो तुम जिसका प्रोजेक्ट है उसको साथ बिठाकर काम कराओ। प्रोजेक्ट का काम यदि तुम पूरा कर दोगे तो उसे कैसे कुछ समझ में आयेगा ? स्कूल-कॉलेजों में जो प्रोजेक्ट दिये जातें हैं वे कोई दिखावा या खानापूर्ति थोड़े ही होते हैं। उससे हर छात्र के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता है।’’ महक कुछ देर चुप रही फिर गंभीर स्वर में बोली, ‘‘प्रोजेक्ट के प्रश्न को समझना, विषय के अनुरूप सामग्री ढूँढ़ कर एकत्र करना, विषय की प्रस्तुत-कला पर ध्यान देना, आदि बातों के साथ कितनी ही नयी बातों की जानकारी प्राप्त होती है।
‘‘आपकी बात सही है मां, किंतु वह यहां आ कर साथ बैठ कर काम करेगी ?’’
‘‘क्यों नहीं करेगी ? काम उसका है। सीखना उसको है। अच्छे अंक उसको पाने हैं। पास उसे होना है तो उसे बैठना चाहिए,’’ महक ने बेटे को समझाते हुए कहा।
‘‘मां, अब मैंने उसे कह दिया है कि मैं काम पूरा कर के दूंगा। अब यह तो मुझे ही करना चाहिए। भविष्य में इसका ध्यान रखूंगा।’’
‘‘जो अपना काम स्वयं न कर दूसरों पर थोप दे, यह ठीक नहीं। वह सबके सामने तुम्हारी प्रशंसा के बोल बोलती रहेगी किंतु अपना काम स्वयं न कर कहीं बैठे गप्पें मार रही होगी या पिक्चर देख रही होगी या फिर यूं ही कहीं बाज़ार में घूम रही होगी लेकिन पढ़ नहीं रही होगी ऐसी लड़की इसीलिए तो प्रोजेक्ट करने में असमर्थ होती है...और सहेली के भाई का दोस्त अपने सारे काम छोड़ कर उसका काम करे तो और क्या चाहिए उसे ?’’
महक थोड़ी देर चुप रही फिर कहने लगी, ‘‘तुमने कभी यह सोचा है कि भलाई के नाम पर तुम उसका कितना बड़ा नुकसान कर रहे हो ?’’
‘‘आप ही बताएं, स्कूल वालों को इतने भारी प्रोजेक्ट देने की क्या ज़रूरत है वह साधारण प्रोजेक्ट नहीं दे सकते क्या ?’’
‘‘विशाल, स्कूल हो या फिर कॉलेज, प्रोजेक्ट सोच-समझ कर ही दिये जाते हैं। छात्र की उम्र, कक्षा का स्तर, छात्र का स्तर, छात्र के अंदरूनी गुणों के देखते हुए विषय का चयन किया जाता है’’, महक ने समझाते हुए कहा।
‘‘मैं नहीं मानता। यदि हमारे शिक्षक अपने छात्रों से ऊंची अपेक्षाएं रखते हैं तो उन्हें स्कूल में हमें पूरी तरह बताना चाहिए कि हम किस प्रकार प्रोजेक्ट पर काम करें। जो छात्र उनकी कोचिंग क्लासों में जाते हैं उन्हें वे अच्छी तरह समझाते हैं, पर स्कूल की क्लास में कुछ नहीं।’’ विशाल चिढ़ गया था। ‘आप नहीं जानतीं, हम सबको कितनी कठिनाई होती है। अकसर मां-बाप को ही उनका प्रोजेक्ट करना पड़ता है।’’ उसकी आवाज़ में बैखलाहट भर गयी। ‘‘क्या करते हैं शिक्षक ? छात्र नंबर नहीं लाते तो वे शिकायत करते हैं कि हम पढ़ते नहीं। जब छात्र शत-प्रतिशत अंक प्राप्त करता है तो वे क्या कहते हैं कि छात्र ने स्वयं मेहनत कर अंक प्राप्त किये हैं ? मैं कहता हूं मां, शिक्षक शिकायत तो करते हैं लेकिन कभी उन्होंने बच्चे की समस्या को समझा है ? उनकी मदद का कोई क़दम उठाया है ? वे केवल होशियार छात्रों को ही महत्त्व देते हैं,’’ उसने तीखे स्वर में कहा।
‘‘कक्षा में सबको आगे बढ़ाने का यह भी एक तरीक़ा होता है जिससे सब एक-दूसरे को देख कर अपना विकास कर सकें। कोई भी इंसान तब तक किसी वस्तु के लिए परिश्रम नहीं करता, तब तक वह वस्तु उसे प्राप्त नहीं हो सकती है’’, महक ने विशाल को समझाया।
‘‘आप चाहे शिक्षकों के कार्यों की सराहना करें लेकिन हम छात्रों को मालूम है कि हमें क्या-क्या झोलना पड़ता है। हम छात्र हैं, स्कूल में पढ़ने आये हैं, विषय के प्रति हमें कोई जानकारी नहीं होती तो छात्रों में विषय के प्रति जिज्ञासा जाग्रत करना क्या शिक्षकों का काम नहीं ?’’
थोड़ी देर में महक हाथ का काम निपटा उसके कमरे में यानी स्टडीरूम में आ गयी। मां के सामने आते ही विशाल गहन चिंतित नज़रों से उसकी ओर देखने लगा। फिर एक गहरी सांस लेते हुए बोला, ‘‘आप ही बताइए, जब हम फेल होते हैं तो शिक्षक और माता-पिता हमें ही दोषी क्यों ठहराते हैं। कभी उन्होंने यह भी सोचा है कि हमें ढंग से पढ़ाया गया है या नहीं ? हमारे संदेह दूर करने के लिए क्या कभी भिन्न-भिन्न प्रकार की पद्धतियां अपनायी गयीं हैं या नहीं ? यही इस छात्रा के साथ हुआ है।’ इतना कह कर विशाल अपने काम में पुनः जुट गया।
‘‘विशाल बेटे, इस प्रकार उसका विकास कभी नहीं हो पायेगा। उसे तुम सिखाओ, सब मिल कर एक-दूसरो को सिखाओ, लेकिन काम कर के देना तो उसके विकास को पूरी तरह से बंद करना होगा।’’
‘‘यह प्रोजेक्ट वह कितनी बार कर चुकी है लेकिन हर बार शिक्षक ने उस पर ‘पुनः करो’ लिख कर लौटा दिया है। इसलिए अब वह आत्मविश्वास खोने के साथ-साथ पूरी तरह टूट चुकी है।’’
‘‘विशाल बेटा, ज़िन्दगी हिम्मत का सौदा है।’’ मां का वाक्य कान में पड़ते ही उसके काम करते हाथ रुक गये। उसने मां की ओर ध्यान से देखा। महक ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा, ‘‘बार बार प्रयत्न करने पर भी जब हम असफल हो जाते हैं, हमारा निराशा से भरा दिल टूट जाता है तब भी हमें स्वयं ही अपने को उठाने का प्रयास करना पड़ता है। ज़रा सोचो, चोट लगने पर डॉक्टर दवा तो दे सकता है, इंजेक्शन लगा सकता है किंतु दर्द तो हमें ही सहना पड़ता है।
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